सूरदास पद 2 – “मन की मन ही माँझ रही

सूरदास पद 2 – पूर्ण अर्थ एवं शब्दार्थ

📖 सूरदास पद 2 – “मन की मन ही माँझ रही”

कक्षा: 10 | पुस्तक: क्षितिज भाग 2 | कवि: सूरदास


मन की मन ही माँझ रही।
गोपियाँ कहती हैं कि हमारी मन की बात मन के अंदर ही रह गई है — हमने उसे न व्यक्त किया, और न ही किसी ने समझा।
कहिए जाइ कौन पै उधौ, नाहिं परत कही।
वे पूछती हैं—किसके पास जाकर कहें, उद्धव? क्योंकि उन्होंने भी हमारी बात नहीं समझी। हम चाहकर भी किसी से नहीं कह सकती क्योंकि हम से कहा नहीं जाता है!
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
कृष्ण के लौटने की आशा ही हमारे तन-मन को व्यथित करती रही और हमने अपनी पीड़ा सहती चली गई।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि‑सुनि, बिरहिनि बिरह दही
उद्धव द्वारा आये योग-संदेश को सुन‑सुनकर हम विरह अग्नि में और अधिक जल गईं।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत. तैं धार बही।
हम उनसे बचाने की पुकार करती थीं, पर वहीं से आशा को भी विरोध मिलता रहा — हमारे अंतर्मन में ही दर्द की नदी बह रही है।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही॥
सूरदास इन पंक्तियों के माध्यम से कह रहे हैं कि गोपियां अब हम धैर्य क्यों रखें, जब आत्म‑सम्मान और मर्यादा ही खो चुकी है?

📘 पूरा पद पढ़ने हेतु: NCERT क्षितिज भाग 2 – पाठ 1 PDF

📌 डिस्क्लेमर: यह सामग्री शिक्षा‑मूलक है; मूल अधिकार NCERT के प्रयोजन हेतु सुरक्षित हैं। किसी आपत्ति हेतु कृपया यहाँ संपर्क करें

✍️ लेखक: कपिल गाकरे | हिंदी‑संस्कृत शिक्षक | छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश

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