कक्षा 10 – सूरदास के पद: भावार्थ, शब्दार्थ व सुंदर व्याख्या
🌸 सूरदास के पद – कक्षा 10 के चारों पदों का सरल भावार्थ और शब्दार्थ
यह लेख कक्षा 10 के हिंदी पाठ "सूरदास के पद" पर आधारित है, जिसमें कवि सूरदास द्वारा रचित चार पदों का मूल पाठ, शब्दार्थ और अत्यंत सरल, स्पष्ट तथा SEO-अनुकूल भावार्थ प्रस्तुत किया गया है।
📜 पद 1: ऊधौ! तुम हौ अति बड़भागी
ऊधौ , तुम हौ अति बड़भागी ।
अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ , दृष्टि न रूप परागी ।
‘ सूरदास ‘ अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यौं पागी ॥
🔤 शब्दार्थ:
- बड़भागी – सौभाग्यशाली
- अपरस – स्पर्शरहित, अप्रभावित
- सनेह तगा – प्रेम का धागा
- अनुरागी – प्रेमयुक्त
- पुरइनि पात – कमल का पत्ता
- गागरि – मटका
- परागी – मोहित
- गुर चाँटी – गाढ़ा गुड़
- पागी – चिपक गई
💬 भावार्थ:
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो जो श्रीकृष्ण जैसे प्रेममय व्यक्तित्व के इतने पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं पड़े। तुम पर उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तुम उसी तरह हो जैसे कमल का पत्ता पानी में रहकर भी गीला नहीं होता, या तेल से भरी मटकी जो पानी में रखी हो लेकिन पानी का असर उस पर न हो। तुमने कृष्ण के सौंदर्य की ओर कभी आकर्षित होकर नहीं देखा और उनके प्रेम में डूबे नहीं। इसके विपरीत, हम गोपियाँ तो श्रीकृष्ण के प्रेम में पूरी तरह उलझ गई हैं, जैसे चींटियाँ मीठे गुड़ में चिपक जाती हैं।
📜 पद 2: मन की मन ही माँझ रही
मन की मन ही माँझ रही ।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीं परत कही ।
अवधि अधार आस आवन की , तन मन बिथा सही ।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि , बिरहिनि बिरह दही ।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं , उत तैं धार बही ।
‘ सूरदास ’ अब धीर धरहिं क्यौं , मरजादा न लही ॥
🔤 शब्दार्थ:
- माँझ – भीतर
- अवधि – समय
- बिथा – पीड़ा
- सँदेसनि – संदेश
- बिरहिनि – वियोगिनी स्त्री
- गुहारि – पुकार
- धार बही – ठंडी बात, तटस्थता
- मरजादा – सम्मान, प्रतिष्ठा
💬 भावार्थ:
गोपियाँ कहती हैं कि हम अपनी पीड़ा को केवल अपने मन में ही छिपाए हुए हैं। हम किससे कहें? कोई ऐसा नहीं है जो हमारे दुःख को समझे। कृष्ण के लौटने की उम्मीद में बहुत समय बीत गया है और हम अपने तन-मन से दुःख सह रही हैं। अब तो तुम्हारे योग-संदेश सुन-सुनकर हमारी विरह और भी बढ़ गई है। हम पुकारना चाहती थीं, प्रेम जताना चाहती थीं, लेकिन वहाँ से तो केवल ठंडी, तटस्थ बातें ही आईं। अब जब हमें कोई मान-सम्मान भी नहीं मिल रहा, तो धैर्य रखना भी व्यर्थ है।
📜 पद 3: हमारैं हरि हारिल की लकरी
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तौ ‘ सूर ’ तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी ॥
🔤 शब्दार्थ:
- हारिल – एक पक्षी जो लकड़ी पकड़ता है
- दृढ़ करि पकरी – मजबूती से पकड़ लिया
- जक री – रट गई
- ककरी – करेला
- ब्याधि – रोग
- चकरी – चंचल
💬 भावार्थ:
गोपियाँ कहती हैं कि हमने अपने मन, वचन और कर्म से श्रीकृष्ण को मजबूती से पकड़ लिया है, जैसे हारिल पक्षी लकड़ी पकड़ लेता है। जागते, सोते, स्वप्न में, हर समय हमारे मन में सिर्फ कान्हा ही बसे हैं। अब तुम्हारे उपदेश हमें कटु लगते हैं, जैसे करेला खाने को दिया जा रहा हो। यह कोई नई बीमारी जैसी चीज़ है जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा-सुना। सूरदास कहते हैं कि ऐसे जोगी उपदेश उन्हें दो जिनका मन चंचल हो, हमारे लिए श्रीकृष्ण ही सर्वस्व हैं।
📜 पद 4: हरि हैं राजनीति पढ़ि आए
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही , अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए ।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग – सँदेस पठाए ।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए ।
अब अपनै मन फेर पाइहैं , चलत जु हुते चुराए ।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन , जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहै ‘ सूर ’ , जो प्रजा न जाहिं सताए ॥
🔤 शब्दार्थ:
- राजनीति – व्यवहारिक ज्ञान
- मधुकर – श्रीकृष्ण
- गुरु ग्रंथ – ज्ञान की पुस्तकें
- डोलत धाए – भटकते हुए दौड़ते
- अनीति – अन्याय
- राजधर्म – शासक का कर्तव्य
💬 भावार्थ:
गोपियाँ व्यंग्य के स्वर में कहती हैं कि अब हमारे श्रीकृष्ण राजनीति (नीति-ज्ञान) पढ़कर आए हैं। वे अब केवल ज्ञान की बातें करते हैं, भावनाओं को नहीं समझते। वे पहले से ही बहुत चतुर थे, अब तो जैसे वे कोई गुरु बन गए हैं जो सबको उपदेश देते हैं। अब वे प्रेम और भक्ति की बातों को छोड़कर योग और वैराग्य की शिक्षा दे रहे हैं। उन्होंने उद्धव के माध्यम से जो संदेश भेजा है, उसमें प्रेम नहीं बल्कि तटस्थ नीति की बातें हैं।
गोपियाँ आगे कहती हैं कि उद्धव जैसे सज्जन भी जो दूसरों के भले के लिए दौड़ते रहते हैं, अब केवल समझा कर चले जाते हैं। पहले श्रीकृष्ण हमारे साथ हँसते-खेलते थे, प्रेम करते थे, अब वही हमें त्याग कर चले गए हैं और नीति की बातें करने लगे हैं। क्या यह न्याय है कि जिन्होंने हमें प्रेम के बंधन में बाँधा, वही अब उपदेश देकर हमें छोड़ दें?
अंत में सूरदास कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण अब स्वयं को राजा समझते हैं, तो उन्हें 'राजधर्म' का पालन करना चाहिए। और एक सच्चा राजा कभी अपनी प्रजा को दुख नहीं देता। यदि वह दूसरों को अन्याय छोड़ने की शिक्षा देता है, तो उसे स्वयं भी अन्याय नहीं करना चाहिए। गोपियों को प्रेम में डुबोकर अब उन्हें तड़पाना क्या न्याय है?
Comments
Post a Comment