सूरदास पद 1 – “उधौ, तुम हो अति बड़भागी”
📖 सूरदास पद 1 – “उधौ, तुम हो अति बड़भागी”
कक्षा: 10 | पुस्तक: क्षितिज भाग 2 | कवि: सूरदास
उधौ, तुम हो अति बड़भागी।
गोपियाँ उद्धव को व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि तुम अत्यंत भाग्यशाली हो — श्रीकृष्ण के इतने करीब रहने के बावजूद भी तुम प्रेम का अनुभव नहीं कर पाए।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिं मन अनुरागी।
अर्थात तुम प्रेम के बंधन में होने के बावजूद प्रेमरहित हो; तुम्हारा मन प्रेम‑भाव से मुक्त है।
पुरइन पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
जैसे कमल का पत्ता जल के बीच में रहता है लेकिन न तो भीगता है और न ही जल का अशुद्ध प्रभाव उसे स्पर्श करता है — उसी प्रकार तुम भी प्रेमरहित हो।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
जैसे जल में डूबा तेल‑भरा घड़ा एक भी बूंद नहीं सह सकता — वैसे ही तुम प्रेम के बीच रहते हुए भी प्रेम प्राप्त नहीं कर पाए।
प्रीति‑नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
प्रेम की नदी में तुमने अपने पैर तक नहीं डाले, न ही तुम्हारी दृष्टि कृष्ण के सौंदर्य‑माधुर्य पर टिकी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी॥
मैं — “सूरदास” — अबला (बेचारा या भोली) गोपियाँ हूं, जिन्होंने कृष्ण के प्रेम में चींटी की तरह गुर (गुड़) से चिपककर बंधन ले लिया है।
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✍️ लेखक: कपिल गाकरे | हिंदी‑संस्कृत शिक्षक | छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश
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