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Showing posts from June, 2025

कक्षा 10 – सूरदास के पद: भावार्थ, शब्दार्थ व सुंदर व्याख्या

सूरदास के पद – सरल भावार्थ और शब्दार्थ सहित | कक्षा 10 हिंदी 🌸 सूरदास के पद – कक्षा 10 के चारों पदों का सरल भावार्थ और शब्दार्थ यह लेख कक्षा 10 के हिंदी पाठ "सूरदास के पद" पर आधारित है, जिसमें कवि सूरदास द्वारा रचित चार पदों का मूल पाठ, शब्दार्थ और अत्यंत सरल, स्पष्ट तथा SEO-अनुकूल भावार्थ प्रस्तुत किया गया है। 📜 पद 1: ऊधौ! तुम हौ अति बड़भागी ऊधौ , तुम हौ अति बड़भागी । अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी । पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी । ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी । प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ , दृष्टि न रूप परागी । ‘ सूरदास ‘ अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यौं पागी ॥ 🔤 शब्दार्थ: बड़भागी – सौभाग्यशाली अपरस – स्पर्शरहित, अप्रभावित सनेह तगा – प्रेम का धागा अनुरागी – प्रेमयुक्त पुरइनि पात – कमल का पत्ता गागरि – मटका परागी – मोहित गुर चाँटी – गाढ़ा गुड़ पागी – चिपक गई 💬 भावार्थ: गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम ब...

सूरदास पद 2 – “मन की मन ही माँझ रही

सूरदास पद 2 – पूर्ण अर्थ एवं शब्दार्थ 📖 सूरदास पद 2 – “मन की मन ही माँझ रही” कक्षा: 10 | पुस्तक: क्षितिज भाग 2 | कवि: सूरदास मन की मन ही माँझ रही। गोपियाँ कहती हैं कि हमारी मन की बात मन के अंदर ही रह गई है — हमने उसे न व्यक्त किया, और न ही किसी ने समझा। कहिए जाइ कौन पै उधौ , नाहिं परत कही। वे पूछती हैं—किसके पास जाकर कहें, उद्धव? क्योंकि उन्होंने भी हमारी बात नहीं समझी। हम चाहकर भी किसी से नहीं कह सकती क्योंकि हम से कहा नहीं जाता है! अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। कृष्ण के लौटने की आशा ही हमारे तन-मन को व्यथित करती रही और हमने अपनी पीड़ा सहती चली गई। अब इन जोग सँदेसनि सुनि‑सुनि, बिरहिनि बिरह दही । उद्धव द्वारा आये योग-संदेश को सुन‑सुनकर हम विरह अग्नि में और अधिक जल गईं। चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत. तैं धार बही। हम उनसे बचाने की पुकार करती थीं, पर वहीं से आशा को भी विरोध मिलता रहा — हमारे अंतर्मन में ही दर्द की नदी बह रही है। ‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा ...

सूरदास पद 1 – “उधौ, तुम हो अति बड़भागी”

पद 1 | सूरदास – पूर्ण अर्थ एवं शब्दार्थ 📖 सूरदास पद 1 – “उधौ, तुम हो अति बड़भागी” कक्षा: 10 | पुस्तक: क्षितिज भाग 2 | कवि: सूरदास उधौ , तुम हो अति बड़भागी । गोपियाँ उद्धव को व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि तुम अत्यंत भाग्यशाली हो — श्रीकृष्ण के इतने करीब रहने के बावजूद भी तुम प्रेम का अनुभव नहीं कर पाए। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिं मन अनुरागी । अर्थात तुम प्रेम के बंधन में होने के बावजूद प्रेमरहित हो; तुम्हारा मन प्रेम‑भाव से मुक्त है। पुरइन पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। जैसे कमल का पत्ता जल के बीच में रहता है लेकिन न तो भीगता है और न ही जल का अशुद्ध प्रभाव उसे स्पर्श करता है — उसी प्रकार तुम भी प्रेमरहित हो। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी। जैसे जल में डूबा तेल‑भरा घड़ा एक भी बूंद नहीं सह सकता — वैसे ही तुम प्रेम के बीच रहते हुए भी प्रेम प्राप्त नहीं कर पाए। प्रीति‑नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। प्रेम की नदी में तुमने अपने पैर तक नहीं डाले, न ही तुम्हारी दृष्ट...